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अमेरिकी शेयर बाजार इन दिनों जिस तरह की उठापटक का सामना कर रहा है, वह 2020 के कोरोना काल के बाद का सबसे बड़ा झटका माना जा रहा है। 22 नवंबर 2022 को डाउ जोन्स ने 2.26% की गिरावट दर्ज की, जबकि एसएंडपी 500 में 76 अंकों का नुकसान हुआ। ये आँकड़े सामान्य नहीं हैं, क्योंकि अमेरिका का बाजार भारत के बाजार से कई गुना बड़ा है। अगर भारत के संदर्भ में समझें तो जहाँ लाख रुपये के निवेश पर 1% का उतार-चढ़ाव भी मामूली लगता है, वहीं अमेरिका के करोड़ों डॉलर के बाजार में यही प्रतिशत बड़े आर्थिक भूचाल का संकेत देता है। यह गिरावट सिर्फ़ संख्याओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे डोनाल्ड ट्रंप की विवादास्पद नीतियाँ, टैरिफ युद्ध, और वैश्विक निवेशकों का बढ़ता अविश्वास जैसे गहरे कारण छिपे हैं।
ट्रंप के “अमेरिका फ़र्स्ट” के नारे और आक्रामक टैरिफ नीतियों ने वैश्विक व्यापार को अस्त-व्यस्त कर दिया है। उन्होंने चीन, कनाडा, मैक्सिको, यूरोपीय संघ और यहाँ तक कि भारत जैसे सहयोगी देशों पर भी आयात शुल्क बढ़ाने की धमकियाँ दीं। मसलन, कनाडा पर एल्युमिनियम और स्टील पर 25% टैरिफ लगाकर उन्होंने न केवल पड़ोसी देशों से रिश्ते खराब किए, बल्कि अमेरिकी उपभोक्ताओं को भी महँगाई का सामना कराया। ट्रंप का मानना था कि टैरिफ से घरेलू उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन नतीजा उलटा हुआ। विदेशी सामान महँगा होने से अमेरिकी कंपनियों की बिक्री प्रभावित हुई, और प्रतिशोधी टैरिफ के चलते निर्यात भी घटा। इससे कारोबारी मुनाफ़े में गिरावट आई, जिसका सीधा असर शेयर बाजार पर पड़ा।
जब से ट्रंप की नीतियों ने रफ़्तार पकड़ी, निवेशकों का विश्वास डगमगाने लगा। अमेरिकी बाजार से पूँजी निकालकर निवेशक अन्य बाजारों की ओर रुख करने लगे। लेकिन हाल के दिनों में जब शेयरों में भारी गिरावट शुरू हुई, तो यही पूँजी वापस लौटने की कोशिश में बाजार को और हिला गई। इस उठापटक ने “मंदी” (Recession) की आशंकाएँ बढ़ा दी हैं। अमेरिकी मीडिया और आर्थिक विशेषज्ञ चर्चा कर रहे हैं कि क्या देश दो तिमाहियों तक आर्थिक संकुचन का सामना करेगा, जो मंदी की परिभाषा है। 2008 के वित्तीय संकट की यादें ताज़ा हो गई हैं, जब अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया था।
अमेरिकी बाजार की गिरावट का असर भारत समेत अन्य उभरते बाजारों पर भी पड़ा है। भारतीय शेयर बाजार में निफ़्टी और सेंसेक्स लगातार निचले स्तर पर कारोबार कर रहे हैं। हाँगकाँग, जर्मनी और जापान के बाजार भी लाल निशान में हैं। इसकी एक वजह वैश्विक निवेशकों का जोखिम से बचाव (Risk Aversion) है। अमेरिका में अनिश्चितता बढ़ने पर निवेशक अपने पैसे सुरक्षित समझे जाने वाले बॉन्ड या सोने में लगाते हैं, जिससे इक्विटी बाजारों में बिकवाली बढ़ जाती है। भारत के लिए चिंता की बात यह है कि अगर अमेरिका मंदी में फँसता है, तो निर्यात, रोजगार और विदेशी निवेश (FDI) पर भी दबाव बढ़ेगा।
ट्रंप की नीतियों का सबसे बड़ा नुकसान अमेरिका का वैश्विक विश्वसनीयता घटना है। पारंपरिक सहयोगियों जैसे जापान, दक्षिण कोरिया और यूरोपीय देशों से तनाव बढ़ने से अमेरिका अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अकेला पड़ता नज़र आ रहा है। उदाहरण के लिए, भारत के प्रधानमंत्री से मुलाकात से ठीक पहले ट्रंप ने भारत पर “अत्यधिक टैरिफ” लगाने की बात कही, जिससे द्विपक्षीय संबंधों में खटास आई। इस तरह के कदमों से व्यापारिक साझेदारों में रोष है, और अमेरिकी कंपनियों को नए बाजार तलाशने में दिक्कत हो रही है।
विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका को टैरिफ युद्ध के बजाय बहुपक्षीय व्यापार समझौतों पर ध्यान देना चाहिए। साथ ही, घरेलू बाजार को मजबूत करने के लिए बुनियादी ढाँचे और तकनीकी नवाचार में निवेश बढ़ाना होगा। भारत जैसे देशों के लिए यह समय घरेलू उपभोग और आत्मनिर्भरता (Self-Reliance) बढ़ाने का है। हालाँकि, वैश्विक अर्थव्यवस्थाएँ इतनी गहराई से जुड़ी हैं कि एक बड़े बाजार की मुश्किलें सभी को प्रभावित करती हैं।