Europe to Deploy Nuclear Weapons: यूरोप की नई रणनीति और अमेरिका से अलग राह

दुनिया भर में भू-राजनीतिक उथल-पुथल के इस दौर में यूरोपीय संघ (ईयू) एक नए मोड़ पर खड़ा है। अमेरिका के साथ दशकों से चले आ रहे सुरक्षा गठजोड़ों में दरारें नज़र आ रही हैं, और फ्रांस जैसे देश यूरोपीय नेतृत्व की बागडोर संभालने को तैयार हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध, नाटो में अमेरिकी प्रतिबद्धता पर सवाल, और यूरोपीय देशों की सुरक्षा चिंताओं ने इस बदलाव को गति दी है। आइए, इन सभी पहलुओं को विस्तार से समझते हैं।


यूरोपीय संघ: एकजुटता की चुनौती और फ्रांस की भूमिका

यूरोपीय संघ के 27 देशों ने आर्थिक और राजनीतिक एकीकरण के माध्यम से शक्ति संतुलन बनाए रखा है, लेकिन सुरक्षा के मामले में वे हमेशा अमेरिका पर निर्भर रहे हैं। ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन के अलग होने से यह निर्भरता और गहरी हुई, क्योंकि यूरोप में अब केवल फ्रांस के पास ही परमाणु हथियारों का जखीरा बचा है। फ्रांस ने हाल ही में यूरोपीय सुरक्षा में अपनी भूमिका बढ़ाने की इच्छा जताई है। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने स्पष्ट किया कि अगर अमेरिका नाटो के तहत सुरक्षा देने में विफल रहता है, तो फ्रांस अपने परमाणु संरक्षण (न्यूक्लियर अंब्रेला) को यूरोपीय सहयोगियों तक विस्तारित करेगा। यह बयान यूरोप में एक नए “सैन्य स्वावलंबन” की ओर इशारा करता है।


अमेरिका-यूरोप तनाव: नाटो और ट्रंप की धमकियाँ

डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने नाटो सदस्यों पर वित्तीय दबाव बनाना शुरू कर दिया है। ट्रंप ने बार-बार कहा है कि यूरोपीय देश रक्षा बजट बढ़ाएँ, वरना अमेरिका उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं लेगा। यह रुख यूरोप के लिए चिंताजनक है, क्योंकि नाटो का 70% से अधिक खर्च अमेरिका वहन करता है। ट्रंप की नीतियों ने यूरोप को यह एहसास दिलाया कि अमेरिका अब “वैश्विक पुलिसमैन” की भूमिका से पीछे हट रहा है। इसके चलते यूरोपीय नेता स्वयं की सैन्य क्षमता विकसित करने पर विचार कर रहे हैं।


रूस का बढ़ता दबाव और यूरोप की सुरक्षा चुनौतियाँ

रूस-यूक्रेन युद्ध ने यूरोप की कमजोरियों को उजागर किया है। यूक्रेन के पास परमाणु हथियारों का अभाव उसे रूसी आक्रमण के प्रति संवेदनशील बनाता है। यूरोपीय देशों को डर है कि अगर रूस यूक्रेन पर कब्जा कर लेता है, तो बाल्टिक देश (एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया) और पोलैंड अगले निशाने पर होंगे। रूस ने 2030 तक 3 लाख अतिरिक्त सैनिकों, 3000 टैंकों और 300 लड़ाकू विमानों की तैयारी की घोषणा की है, जो यूरोप के लिए खतरे की घंटी है। इस पृष्ठभूमि में फ्रांस का न्यूक्लियर प्रस्ताव यूरोपीय देशों के लिए एक विकल्प बन सकता है।


फ्रांस का न्यूक्लियर प्रस्ताव: संभावनाएँ और सीमाएँ

फ्रांस के पास 300 परमाणु हथियार हैं, जो इसे यूरोप का एकमात्र परमाणु शक्ति संपन्न देश बनाते हैं। मैक्रों का प्रस्ताव है कि फ्रांस यूरोपीय सहयोगियों को अपने परमाणु संरक्षण में ले, लेकिन यह इतना सरल नहीं है। पहली बाधा यह है कि फ्रांस के परमाणु हथियार उसकी संप्रभुता के प्रतीक हैं, और उन्हें साझा करने में राजनीतिक व तकनीकी जोखिम शामिल हैं। दूसरी चुनौती यूरोपीय देशों की ओर से है—क्या वे फ्रांस पर इतना निर्भर होने को तैयार हैं? जर्मनी जैसे देश, जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं लेकिन सैन्य रूप से कमजोर, इस प्रस्ताव को लेकर संशकित हैं। इसके अलावा, यूरोपीय संघ के अंदर सैन्य एकीकरण की कमी भी एक बड़ी रुकावट है।


भारत से सबक: स्वावलंबन की अहमियत

यूरोप की वर्तमान दुविधा भारत के लिए एक सबक है। 1974 और 1998 में परमाणु परीक्षण कर भारत ने साबित किया कि सुरक्षा स्वावलंबन ज़रूरी है। यूक्रेन का उदाहरण दिखाता है कि बाहरी सुरक्षा वादों पर निर्भरता खतरनाक हो सकती है। यूरोपीय देशों को भी अब लग रहा है कि अपनी सेना मजबूत करना और तकनीकी स्वतंत्रता हासिल करना ही टिकाऊ रास्ता है। फ्रांस के प्रस्ताव को इसी दिशा में एक कदम माना जा सकता है, लेकिन यूरोप को लंबी अवधि के लिए संयुक्त सैन्य ढाँचा विकसित करना होगा।


यूरोप इस समय दो रास्तों के बीच खड़ा है: एक ओर अमेरिका के साथ नाटो की पारंपरिक साझेदारी को बनाए रखना, जिसके लिए अधिक वित्तीय भागीदारी देनी होगी; दूसरी ओर फ्रांस के नेतृत्व में एक स्वतंत्र सुरक्षा ढाँचा खड़ा करना। दोनों ही विकल्प चुनौतियों से भरे हैं। ट्रंप की अनिश्चित नीतियों और रूसी आक्रामकता के बीच यूरोप को जल्द निर्णय लेना होगा। फ्रांस का न्यूक्लियर प्रस्ताव एक शुरुआत हो सकता है, लेकिन यूरोपीय एकजुटता और सैन्य समन्वय के बिना यह अधूरा है। भविष्य बताएगा कि क्या यूरोप अमेरिका की छाया से निकलकर एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में उभर पाता है।

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