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The Ukraine crisis and the changing face of global leadership: यूक्रेन संकट और वैश्विक नेतृत्व में बदलाव की बयार

The Ukraine crisis and the changing face of global leadership

The Ukraine crisis and the changing face of global leadership

दुनिया के राजनीतिक परिदृश्य में इन दिनों एक नया मोड़ देखने को मिल रहा है। यूरोपीय नेता और कनाडा जैसे देश खुलकर यह कहने लगे हैं कि “मुक्त दुनिया” को अब एक नए नेता की जरूरत है, क्योंकि अमेरिका अब वह भूमिका नहीं निभा पा रहा जो कभी उसने की थी। यूक्रेन-रूस युद्ध के बीच यह बहस गर्म हो गई है, खासकर डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी नीतियों को लेकर। यूरोपीय संघ के नेताओं ने जोर देकर कहा है कि ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के साथ जिस तरह का व्यवहार किया, वह अस्वीकार्य है। इसके चलते यूरोप ने ज़ेलेंस्की के समर्थन में एकजुटता दिखाई है और खुद को “नए वैश्विक नेता” के रूप में पेश करने की कोशिश शुरू कर दी है।

यूरोप की सैन्य महत्वाकांक्षाएं और अमेरिका से मतभेद

यूरोपीय देशों का मानना है कि अमेरिका अब यूक्रेन को लंबे समय तक समर्थन देने में रुचि नहीं दिखा रहा। ट्रंप चाहते हैं कि युद्ध जल्द से जल्द समाप्त हो, भले ही यूक्रेन को अपनी कुछ भूमि रूस के हवाले करनी पड़े। उनका तर्क है कि अमेरिकी टैक्सपेयर्स का पैसा यूक्रेन पर लगातार खर्च करना उचित नहीं है। वहीं, यूरोप इस रणनीति से सहमत नहीं है। पोलैंड, फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों ने अपने रक्षा बजट बढ़ाने का ऐलान किया है और सेना को मजबूत करने पर जोर दिया है। यूरोप का लक्ष्य स्पष्ट है: अमेरिका के कमजोर पड़ते ही वह “मुक्त दुनिया” के नेतृत्व की बागडोर संभालने को तैयार है।

ज़ेलेंस्की की दुविधा और पश्चिमी एकजुटता

यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की इस समय दोनों ओर से दबाव झेल रहे हैं। एक ओर ट्रंप उन्हें युद्ध समाप्त करने के लिए रूस से समझौता करने का आग्रह कर रहे हैं, तो दूसरी ओर यूरोप और कनाडा ने उन्हें निरंतर समर्थन का भरोसा दिलाया है। जस्टिन ट्रूडो जैसे नेता लगातार यूक्रेन के साथ खड़े होने का संकेत दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर ज़ेलेंस्की का “थैंक यू” अभियान चल रहा है, जहां वह हर समर्थक देश की सराहना करते नजर आते हैं। हालांकि, यूरोप की सैन्य क्षमता अभी अमेरिका के मुकाबले कमजोर है, इसलिए उनकी घोषणाओं को लेकर संदेह भी है।

भारत का तटस्थ रुख और शांति का समर्थन

इस पूरे विवाद में भारत ने अपनी परंपरागत तटस्थता बनाए रखी है। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में यूरोपीय संघ की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन से मुलाकात की, लेकिन यूक्रेन या रूस के पक्ष में कोई स्पष्ट बयान नहीं दिया। भारत का जोर संघर्ष विराम और बातचीत के जरिए शांति स्थापित करने पर है। कुछ भारतीयों ने सोशल मीडिया पर यूरोप के समर्थन में आवाज उठाई है, लेकिन सरकारी स्तर पर दूरंदेशी नीति अपनाई जा रही है।

ट्रंप की रणनीति: युद्ध समाप्ति पर जोर

डोनाल्ड ट्रंप की प्राथमिकता स्पष्ट है—यूक्रेन युद्ध को तत्काल रोकना। उन्हें डर है कि यदि संघर्ष लंबा खिंचा तो विश्व युद्ध का खतरा पैदा हो सकता है। ट्रंप ने ज़ेलेंस्की को चेतावनी दी है: “तुम वर्ल्ड वॉर 3 का जुआ खेल रहे हो।” अमेरिका की चिंता आर्थिक भी है। यूक्रेन को दी जाने वाली सैन्य सहायता का बड़ा हिस्सा अमेरिकी कंपनियों को जाता है, लेकिन ट्रंप प्रशासन इन खर्चों में कटौती चाहता है। यही कारण है कि अमेरिका यूक्रेन को साइबर सहायता जैसे कार्यक्रमों को भी धीरे-धीरे समेट रहा है।

भविष्य की चुनौतियाँ और यूरोप की कोशिशें

यूरोपीय नेता जॉर्जिया मेलोनी जैसे लोग पश्चिमी सभ्यता को बचाने की बात करते हुए ट्रंप और यूरोप के बीच समन्वय बढ़ाना चाहते हैं। हालांकि, ट्रंप का रुख यूरोपीय मामलों से दूरी बनाने का है। जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री की ट्रंप से मुलाकात हुई, तो उन्होंने व्यंग्य में पूछा: “क्या तुम रूस से अकेले लड़ सकते हो?” यह सवाल यूरोप की सैन्य निर्भरता को उजागर करता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यूक्रेन ने ट्रंप की शर्तें नहीं मानीं, तो रूस भविष्य में बड़ा हमला कर सकता है, जिससे यूक्रेन की हानि और बढ़ेगी।

शांति या संघर्ष—कौन सा रास्ता चुनेगी दुनिया?

वर्तमान परिदृश्य में दो दृष्टिकोण टकरा रहे हैं। अमेरिका तात्कालिक शांति चाहता है, भले ही उसकी कीमत यूक्रेन को चुकानी पड़े। वहीं, यूरोप युद्ध जारी रखकर रूस को कमजोर करने की रणनीति पर चल रहा है। भारत जैसे देश इन दोनों ध्रुवों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। आने वाले समय में यह तय होगा कि क्या यूरोप वैश्विक नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने को तैयार है, या फिर अमेरिका फिर से अपनी भूमिका निभाने लगेगा। फिलहाल, यूक्रेन के लोगों के लिए यह संघर्ष जीवन-मरण का प्रश्न बना हुआ है।

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