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Secret talks between America and Russia: जेलेंस्की की मजबूरी और यूरोप की चिंताएं

Secret talks between America and Russia

Secret talks between America and Russia

यूक्रेन युद्ध ने न केवल यूक्रेन को बल्कि पूरे यूरोप को अपनी चपेट में ले लिया है। हालांकि, अब यह संकट एक नए मोड़ पर पहुंच गया है, जहां अमेरिका और रूस के बीच गुप्त समझौते की आहटें सुनाई दे रही हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमीर जेलेंस्की इस स्थिति से नाराज़ और हैरान हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि अमेरिका ने उनके साथ धोखा किया है। यह संकट न केवल यूक्रेन के भविष्य को प्रभावित कर रहा है, बल्कि यूरोपीय देशों की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पर भी गहरा असर डाल रहा है।

अमेरिका और रूस के बीच गुप्त वार्ता: यूक्रेन को दरकिनार

हाल के दिनों में सऊदी अरब की राजधानी रियाद में अमेरिका और रूस के बीच गुप्त वार्ता हुई है। इस वार्ता में यूक्रेन को शामिल नहीं किया गया, जो यूक्रेन के लिए एक बड़ा झटका है। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन और रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने इस बैठक में यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने के तरीकों पर चर्चा की। यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका और रूस यूक्रेन को पीछे रखकर युद्ध को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

जेलेंस्की ने इस स्थिति पर गुस्सा जताया है और उन्हें लग रहा है कि अमेरिका ने उनके साथ विश्वासघात किया है। यूक्रेन के लोगों को यह समझ नहीं आ रहा है कि अमेरिका ने उन्हें यह विश्वास क्यों दिलाया कि वह बिना किसी स्वार्थ के यूक्रेन की मदद करेगा। हालांकि, अब यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका का यूक्रेन में कोई निस्वार्थ हित नहीं है।

यूरोप की चिंताएं और आर्थिक नुकसान

यूक्रेन युद्ध ने यूरोपीय देशों को भी गहराई से प्रभावित किया है। जर्मनी जैसे देशों ने रूस से ऊर्जा खरीदना बंद कर दिया, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ। यूरोपीय देशों ने भारत जैसे देशों पर भी दबाव डाला कि वे रूस से ऊर्जा खरीदना बंद करें, लेकिन भारत ने इस पर स्पष्ट रुख अपनाया और कहा कि यूरोप की समस्याएं पूरी दुनिया की समस्याएं नहीं हैं।

अब यूरोपीय देशों को यह समझ में आ रहा है कि अमेरिका यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है और यूरोप को अकेला छोड़ सकता है। इसी चिंता के कारण यूरोपीय नेताओं ने हाल ही में पेरिस में एक आपातकालीन बैठक की, लेकिन इस बैठक में कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकल सका। पोलैंड जैसे देशों ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें यूरोपीय नाटो बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

जेलेंस्की की मजबूरी और यूक्रेन का भविष्य

जेलेंस्की ने यूरोपीय नेताओं से अपील की है कि यूरोप को अपनी सेना बनानी चाहिए, क्योंकि अमेरिका पर अब भरोसा नहीं किया जा सकता। हालांकि, यूरोपीय नेताओं ने इस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी। यूरोपीय देशों को लगता है कि यूक्रेन ने नाटो में शामिल होने की जिद पकड़कर इस युद्ध को शुरू किया और अब वे इससे दूर रहना चाहते हैं।

यूक्रेन का भविष्य अब अंधकारमय लग रहा है। देश की एक बड़ी आबादी को देश छोड़कर भागना पड़ा है और यूक्रेन ने अपनी बहुत सारी जमीन रूस के कब्जे में खो दी है। डोनाल्ड ट्रंप ने यूक्रेन से मांग की है कि वह अपने देश के खनिज संसाधनों का 50% अमेरिका को दे, क्योंकि अमेरिका ने यूक्रेन की युद्ध में मदद की थी। हालांकि, जेलेंस्की ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि यूक्रेन को अंततः अमेरिका के सामने झुकना पड़ सकता है।

रूस की जीत और सैंक्शन हटाने की संभावना

रूस ने यूक्रेन युद्ध में बड़ी कीमत चुकाई है, लेकिन उसे यूक्रेन की बड़ी जमीन हासिल हुई है। व्लादिमीर पुतिन अब युद्ध को समाप्त करना चाहते हैं और सीजफायर की संभावना तलाश रहे हैं। अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने संकेत दिया है कि रूस पर लगे सैंक्शन हटाए जा सकते हैं, क्योंकि युद्ध समाप्त होने के बाद इन सैंक्शन का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।

रूस ने युद्ध के दौरान अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए कई उपाय किए हैं और अब वह अमेरिकी कंपनियों के वापस आने की संभावना पर भी विचार कर रहा है। हालांकि, रूस ने पहले ही अपनी कई उद्योगों को स्वदेशी बना लिया है, जिससे वह अमेरिकी सैंक्शन के बावजूद टिका रहा।

सबक: नाटो के बहकावे में न आएं

यूक्रेन संकट से एक बड़ा सबक मिलता है कि किसी भी देश को नाटो जैसे गठबंधन के बहकावे में आकर बड़े युद्ध में नहीं उलझना चाहिए। बड़ी शक्तियां केवल अपना फायदा देखती हैं और जब उनकी नीतियां बदलती हैं, तो वे छोटे देशों को अकेला छोड़ देती हैं। यूक्रेन ने इसकी बड़ी कीमत चुकाई है और अब उसका भविष्य अनिश्चित है।

यूक्रेन युद्ध ने न केवल यूक्रेन को बल्कि पूरे यूरोप को प्रभावित किया है। अमेरिका और रूस के बीच गुप्त समझौते की आहटें यूक्रेन के लिए एक बड़ा झटका हैं। जेलेंस्की की मजबूरी और यूरोप की चिंताएं इस संकट को और गहरा बना रही हैं। यह संकट यह सबक देता है कि किसी भी देश को बड़ी शक्तियों के बहकावे में आकर युद्ध में नहीं उलझना चाहिए, क्योंकि अंततः उन्हें ही इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।

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