भारतीय न्यायपालिका में लिव-इन रिलेशनशिप और अपराधिक कानूनों के बीच संबंधों पर हाल ही में एक चर्चित फैसला सामने आया है। ओडिशा हाई कोर्ट ने एक मामले में स्पष्ट किया कि “स्वैच्छिक संबंधों के टूटने को बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।” यह फैसला उस मामले में आया, जहां एक महिला ने 9 साल तक साथ रहने के बाद अपने पूर्व प्रेमी पर शादी का झांसा देकर बलात्कार का आरोप लगाया था। इस निर्णय ने समाज और कानूनी हलकों में बहस छेड़ दी है कि क्या प्रेम संबंधों की विफलता को अपराध माना जाना चाहिए या नहीं।
मामले की पृष्ठभूमि: 9 साल के रिश्ते का दर्द
ओडिशा के बलांगीर जिले की एक महिला ने आरोप लगाया कि उसके पूर्व प्रेमी ने शादी का वादा करके 2012 से 2021 तक उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए, लेकिन अंततः शादी से इनकार कर दिया। महिला ने आरोपी पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 (बलात्कार) और धारा 420 (छल) के तहत मुकदमा दर्ज करवाया। साथ ही, उसने संबलपुर परिवार अदालत में यह भी दावा किया कि 9 साल के साथ रहने के आधार पर उसे आरोपी की “कानूनी पत्नी” घोषित किया जाए।
हालांकि, हाई कोर्ट ने दोनों मामलों को खारिज करते हुए कहा कि “प्रेम में विफलता अपराध नहीं है।” कोर्ट का तर्क था कि दोनों वयस्कों ने स्वेच्छा से लंबे समय तक संबंध बनाए रखा, इसलिए बाद में शादी न करने को बलात्कार या धोखाधड़ी नहीं माना जा सकता।
कोर्ट का तर्क: सहमति और स्वैच्छिक संबंधों का महत्व
- सहमति की भूमिका: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बलात्कार की परिभाषा तभी लागू होती है जब शारीरिक संबंध बिना सहमति, डर, धमकी या धोखे से बनाए गए हों। चूंकि यह संबंध 9 वर्षों तक चला और दोनों पक्षों ने इसे जारी रखा, इसलिए इसे सहमति से बना माना गया।
- लिव-इन रिलेशनशिप की कानूनी स्थिति: भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को सीधे तौर पर कानूनी मान्यता नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों (जैसे, तुलसीदास बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2013) में इसे “वैवाहिक जैसा संबंध” माना है। हालांकि, यह विवाह के समान अधिकार नहीं देता।
- कानून का दुरुपयोग: कोर्ट ने चेतावनी दी कि “कानून को प्रतिशोध लेने के लिए हथियार नहीं बनाया जा सकता।” अगर हर टूटे प्रेम संबंध को अपराध मान लिया जाए, तो न्याय प्रणाली झूठे मामलों से पट जाएगी।
क्या कहते हैं कानूनी प्रावधान?
- भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376: बलात्कार के लिए न्यूनतम 10 साल की सजा का प्रावधान है, लेकिन यह तभी लागू होता है जब सहमति न हो या धोखे से प्राप्त की गई हो।
- धारा 114A (भारतीय साक्ष्य अधिनियम): अगर महिला आरोप लगाती है कि सहमति नहीं थी, तो आरोपी को यह साबित करना होगा कि संबंध स्वेच्छिक थे।
- घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005: लिव-इन रिलेशनशिप में रह चुकी महिला गुज़ारा भत्ता या सुरक्षा का दावा कर सकती है, लेकिन बलात्कार नहीं।
इस मामले में, महिला ने गलत धाराओं का सहारा लिया। उसे घरेलू हिंसा अधिनियम या शादी के झांसे के लिए धारा 420 के तहत केस करना चाहिए था, न कि बलात्कार का आरोप लगाना।
सामाजिक और कानूनी चुनौतियाँ
- झूठे मामलों का बोझ: एनसीआरबी के अनुसार, 2021 में दर्ज 30% बलात्कार मामले “फर्जी” पाए गए, जिनमें अक्सर प्रेम संबंधों की विफलता को अपराध बताया जाता है। यह वास्तविक पीड़िताओं के लिए न्याय प्रक्रिया को धीमा कर देता है।
- महिलाओं की सुरक्षा बनाम पुरुषों का संरक्षण: कानून का उद्देश्य महिलाओं को न्याय दिलाना है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने (राजू बनाम मध्य प्रदेश, 2022) में भी कहा कि “झूठे आरोपों से पुरुषों को बचाना भी ज़रूरी है।”
- लिव-इन रिलेशनशिप का सामाजिक दृष्टिकोण: भारतीय समाज में लिव-इन को अब भी “अनैतिक” माना जाता है, जिसके कारण महिलाएं अक्सर कानूनी लड़ाई से कतराती हैं या गलत धाराओं का सहारा लेती हैं।
संतुलन की आवश्यकता
ओडिशा हाई कोर्ट का फैसला एक साहसिक कदम है, जो यह याद दिलाता है कि “प्रेम और कानून के बीच की रेखा स्पष्ट होनी चाहिए।” हालांकि, यह फैसला कुछ सवाल भी छोड़ता है:
- क्या लंबे समय तक शादी के वादे के बाद संबंध बनाना “धोखा” नहीं माना जाना चाहिए?
- क्या लिव-इन पार्टनर को विवाह जैसे कानूनी अधिकार मिलने चाहिए?
इन सवालों के जवाब के लिए भारत को लिव-इन रिलेशनशिप पर विशेष कानून बनाने की आवश्यकता है, जो दोनों पक्षों के अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट करे। तब तक, न्यायपालिका का यह दृष्टिकोण प्रासंगिक है कि “स्वेच्छा से बने संबंधों का अंत अपराध नहीं, बल्कि व्यक्तिगत पसंद है।”