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प्रकृति के सबसे विशाल और मायावी आभूषण हिमालय की बर्फीली चोटियाँ आज एक गहरे संकट में हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों ने न केवल हिमालय के ग्लेशियरों को तेजी से पिघलाना शुरू कर दिया है, बल्कि इससे जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र, जल संसाधन, और करोड़ों लोगों के जीवन पर भी खतरा मंडरा रहा है। यह स्थिति केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय लापरवाही, राजनीतिक उदासीनता, और पर्यावरण के प्रति समाज की संवेदनहीनता का परिणाम है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों के घोषणापत्र (मेनिफेस्टो) जनता के हितों का दर्पण माने जाते हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन दस्तावेजों में पर्यावरण संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को लगभग नगण्य स्थान मिलता है। राजनीतिक पार्टियाँ अक्सर तात्कालिक लाभ, योजनाओं, और वोट बैंक की बातें करती हैं, लेकिन ग्लेशियरों के पिघलने, वायु प्रदूषण, या जलवायु परिवर्तन जैसे दीर्घकालिक खतरों पर चुप्पी साध लेती हैं। यह चुप्पी समाज की उस मानसिकता को दर्शाती है, जो “विकास” के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को प्रोत्साहित करती है।
वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की दर बेतहाशा बढ़ी है। नासा की उपग्रह तस्वीरों के अनुसार, माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर जमा बर्फ की परत 150 मीटर तक पतली हो चुकी है। इसी तरह, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पर्वतीय राज्यों में बर्फबारी का समय और मात्रा दोनों अनियमित हो गए हैं। पहले जहाँ दिसंबर-जनवरी में भारी बर्फबारी होती थी, वहाँ अब फरवरी तक भी पर्याप्त बर्फ नहीं गिरती। इसका सीधा प्रभाव स्थानीय पर्यटन, कृषि, और जल स्रोतों पर पड़ रहा है।
हिमालयी क्षेत्र में औसत तापमान में वृद्धि ने पारिस्थितिक संतुलन को गड़बड़ा दिया है। अमेरिका के निकोल्स कॉलेज के प्रोफ़ेसर मोरी एल्टो के अध्ययन के अनुसार, 2040 तक हिमालय की बर्फ का पिघलना और तेज होगा। इस साल की सर्दियों में भी उत्तर भारत में ठंड का अभाव रहा, जो जलवायु असामान्यता का संकेत है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण बर्फ सीधे वाष्प में बदल रही है, जिससे नदियों में पानी की कमी हो रही है। विडंबना यह है कि यह वाष्पीकरण जल संकट को और गहरा करेगा, क्योंकि पानी का एक बड़ा हिस्सा भाप बनकर वायुमंडल में मिल जाएगा।
हालिया शोधों ने हिमालय की बर्फ में माइक्रोप्लास्टिक के कणों की मौजूदगी को उजागर किया है। ये कण मानव गतिविधियों से उत्पन्न कचरे, प्लास्टिक उत्पादों, और वायु प्रदूषण का नतीजा हैं। सामान्यतः बर्फ सूर्य की किरणों को 100% परावर्तित कर देती है, लेकिन प्लास्टिक कण सूर्य की ऊर्जा को सोखकर बर्फ को गर्म करते हैं। चीन के वैज्ञानिकों के अनुसार, इससे ग्लेशियरों के पिघलने की दर 2.5 मिमी प्रतिदिन तक बढ़ जाती है। यह समस्या केवल हिमालय तक सीमित नहीं—आर्कटिक, अंटार्कटिका, और एंडीज पर्वतमाला में भी माइक्रोप्लास्टिक के प्रभाव देखे गए हैं।
हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र (HKH) पर निर्भर 240 मिलियन लोग और 12 नदी घाटियों से जुड़े 1.65 अरब लोगों के लिए यह संकट जीवन-मृत्यु का सवाल बन गया है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि 2100 तक हिमालय के ग्लेशियरों का 75% हिस्सा गायब हो जाएगा। इससे नदियों में अचानक बाढ़ आएगी, जिससे पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन और निचले इलाकों में बस्तियाँ डूबेंगी। साथ ही, दीर्घकाल में नदियों का जलस्तर घटेगा, जिससे कृषि, पेयजल, और जलविद्युत परियोजनाएँ प्रभावित होंगी। हिमाचल प्रदेश में पहले ही बर्फ से ढके क्षेत्र में 14% की कमी दर्ज की गई है।
इस संकट से निपटने के लिए सामूहिक प्रयास जरूरी हैं:
हिमालय की पिघलती बर्फ केवल एक पर्यावरणीय समस्या नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के लिए एक चेतावनी है। अगर हमने अब भी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद नहीं की, तो भविष्य में पानी की एक-एक बूँद के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन की मार सबसे पहले गरीबों और प्रकृति-निर्भर समुदायों पर पड़ेगी। इसलिए, यह समय ठोस कदम उठाने का है—न केवल सरकारें, बल्कि हर नागरिक को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।