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भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक विकास के साथ-साथ रोजगार और आय की समस्याएँ भी गहराती जा रही हैं। हाल के वर्षों में नौकरियों के अवसर बढ़े हैं, लेकिन वेतन में उसी अनुपात में वृद्धि नहीं हुई है। इसके चलते कर्मचारियों की क्रय शक्ति (परचेसिंग पावर) कम हो रही है, जिससे उनका जीवनस्तर गिरता जा रहा है। नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट इस ओर इशारा करती है कि महंगाई और वेतन वृद्धि के बीच का असंतुलन एक गंभीर समस्या बन चुका है। आइए, इसके कारणों और संभावित समाधानों पर विस्तार से चर्चा करते हैं।
आँकड़ों के अनुसार, पिछले पाँच वर्षों में भारत में महंगाई दर औसतन 5-6% प्रतिवर्ष रही है, जबकि नियमित नौकरीपेशा लोगों के वेतन में मात्र 3-4% की वार्षिक वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए, यदि 2018 में कोई कर्मचारी ₹15,000 प्रति माह कमा रहा था, तो 2023 तक उसकी सैलरी लगभग ₹18,000 होनी चाहिए थी। लेकिन व्यवहार में, यह वृद्धि अक्सर ₹20,000 से कम ही होती है। इस बीच, महंगाई ने खाद्य पदार्थों, ईंधन, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाओं की कीमतें दोगुनी कर दी हैं। परिणामस्वरूप, लोगों की बचत कम हो रही है, और उन पर आर्थिक दबाव बढ़ रहा है।
रिपोर्ट में एक रोचक तथ्य सामने आया है: कम वेतन के कारण नौकरी छोड़ने वाले लोग “स्वैच्छिक बेरोजगारी” (Voluntary Unemployment) की श्रेणी में गिने जाते हैं। यह बेरोजगारी का एक विशेष प्रकार है, जहाँ व्यक्ति काम करने योग्य है, लेकिन मौजूदा मजदूरी दर को अपर्याप्त मानकर नौकरी छोड़ देता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई युवा ₹10,000 मासिक वेतन को जीवनयापन के लिए अपर्याप्त समझता है और बेहतर अवसर की तलाश में नौकरी छोड़ देता है, तो वह इसी श्रेणी में आता है।
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के अनुसार, भारत में श्रमिक जनसंख्या अनुपात (Worker Population Ratio) 2017-18 के 34.7% से बढ़कर 2023-24 में 43.7% हो गया है। इसका अर्थ है कि रोजगार के अवसर बढ़े हैं। हालाँकि, श्रम शक्ति भागीदारी दर (Labour Force Participation Rate) और बेरोजगारी दर (Unemployment Rate) जैसे संकेतकों में सुधार के बावजूद, मुद्रास्फीति दर (Inflation Rate) PLFS का हिस्सा नहीं है। यही कारण है कि वेतन और महंगाई के अंतर को समझने के लिए अलग से आर्थिक विश्लेषण की आवश्यकता होती है।