जब कंगना रनौत ने घोषणा की कि वह ‘इमरजेंसी’ का निर्देशन करेंगी, तो कई लोगों ने सोचा कि यह फिल्म 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल की याद को चुनावी वर्ष में कांग्रेस की आलोचना के लिए इस्तेमाल करने का माध्यम हो सकती है। लेकिन लंबे इंतजार और विवादों के बाद, यह स्पष्ट हो गया कि कंगना ने अपने भीतर के कलाकार को प्राथमिकता दी है और एक महत्वाकांक्षी बायोपिक बनाने की कोशिश की है।
फिल्म इमरजेंसी के कठिन समय को इंदिरा गांधी के जीवन के एक अध्याय के रूप में पेश करती है—आनंद भवन से 1 सफदरजंग रोड तक के उनके सफर की कहानी। यह फिल्म इंदिरा के भीतर की तानाशाही प्रवृत्तियों के मनोवैज्ञानिक कारणों को तलाशने की कोशिश करती है। हालांकि, कंगना और रितेश शाह द्वारा लिखित पटकथा इस प्रक्रिया में उलझ जाती है, जिससे कहानी कई जगह कमजोर पड़ती है।
कहानी का फोकस और इतिहास से छेड़छाड़
फिल्म उन लोगों को निराश कर सकती है जो उस समय के इतिहास और राजनीति को बारीकी से जानते हैं। फिल्म ने ऐतिहासिक घटनाओं को अपने तरीके से ढालने की कोशिश की है, ताकि कहानी में इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व के संवेदनशील पहलुओं को दिखाया जा सके। इसके साथ ही, उनके विरोधियों को कहीं अधिक नायकत्व के साथ प्रस्तुत किया गया है। कई कथित ऐतिहासिक उद्धरण और घटनाएँ सही संदर्भ में नहीं हैं, और मुख्य किरदारों, जैसे कि जगजीवन राम (सतीश कौशिक ने अपने अंतिम प्रदर्शन में शानदार छाप छोड़ी है), की भूमिकाओं को भी तोड़ा-मरोड़ा गया है।
फिल्म न केवल आपातकाल के समय को दिखाती है, बल्कि इंदिरा गांधी के पिता, जवाहरलाल नेहरू, पर भी केंद्रित होती है। लेखक पिता-पुत्री के बीच तनाव दिखाने के लिए असम के मुद्दे और भारत-चीन युद्ध को आधार बनाते हैं, जो ऐतिहासिक सटीकता से दूर लगता है।
कंगना की अदाकारी और निर्देशन
कंगना रनौत ने अभिनय में शानदार प्रदर्शन किया है। उन्होंने इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व के कई पहलुओं को बखूबी निभाया है—उनकी करिश्माई उपस्थिति, उनकी घबराहट, और उनकी आँखों की चमक। खासकर, उनके अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के साथ बातचीत और जब उन्हें खुद की गलतियों का एहसास होता है, ये दृश्य प्रभावशाली हैं।
लेकिन बतौर निर्देशक, कंगना कहानी को स्पष्ट दिशा नहीं दे पाई हैं। कई बार फिल्म एक आर्काइव वीडियो की तरह लगती है, जहां ऐतिहासिक घटनाओं का सरल और सतही चित्रण होता है। उदाहरण के लिए, हरित क्रांति, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, गरीबी हटाओ का नारा, और पोखरण परमाणु परीक्षण जैसे महत्वपूर्ण विषयों को नजरअंदाज कर दिया गया है।
संजय गांधी का चित्रण और इंदिरा की छवि
फिल्म में संजय गांधी (विशाक सेन) को एक नकारात्मक और एकतरफा दृष्टिकोण से पेश किया गया है। उनके सौंदर्यीकरण और जनसंख्या नियंत्रण की योजनाओं को इंदिरा की अंधभक्ति के रूप में दिखाया गया है। लेकिन, उनके चरित्र को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है कि पंजाब में भिंडरांवाले को बढ़ावा देने जैसी गलतियों का पूरा दोष संजय पर डाल दिया गया है, जबकि इंदिरा को लगभग माफ कर दिया गया है।
फिल्म का संदेश और निष्कर्ष
फिल्म का अंत इंदिरा गांधी की वापसी के साथ होता है, जब वह बेलची में किसानों का दिल जीतती हैं और गरीब जनता उनके लिए एक नारा गढ़ती है— “आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को लाएंगे।” यह दिखाने की कोशिश की गई है कि इंदिरा गांधी ने अपनी गलतियों से सीखा और एक विजेता के रूप में उभरीं।
फिल्म इतिहास को उस दृष्टिकोण से दिखाने का प्रयास करती है, जो एक नेता, एक देश, और एक नारे के विचार को समर्थन देता है। यह उन लोगों को प्रभावित कर सकती है जो अतीत की चुनिंदा घटनाओं को वर्तमान राजनीति के अनुरूप ढालना चाहते हैं। लेकिन जिन लोगों ने आपातकाल और उससे जुड़े सबक को गहराई से समझा है, उनके लिए यह कहानी एक अधूरी और असंतुलित कोशिश साबित हो सकती है।