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प्रेमानंद महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के सरसौल गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। बचपन से ही उनकी रुचि आध्यात्मिकता में थी। 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और वाराणसी चले गए, जहां उन्होंने कठोर तपस्या और गंगा स्नान के साथ अपनी दिनचर्या बनाई। एक संत से मुलाकात के बाद उन्हें वृंदावन जाने की प्रेरणा मिली, जहां श्रीकृष्ण के दर्शन के बाद उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति हुई। वृंदावन में उन्होंने आश्रम बनाया और हजारों भक्तों को दीक्षा दी।
प्रेमानंद महाराज की रात्रिकालीन पदयात्रा वृंदावन की एक प्रसिद्ध परंपरा बन गई थी। यह यात्रा रात 2 बजे शुरू होती थी, जिसमें भक्त लाउडस्पीकर पर भजन, आतिशबाजी और ढोल-नगाड़ों के साथ शामिल होते थे। हालांकि, एनआरआई ग्रीन सोसाइटी के निवासियों ने शोरगुल, रास्ते बंद होने और नींद में खलल की शिकायत की। विशेषकर बच्चों और बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर प्रभाव को लेकर विरोध प्रदर्शन हुए।
प्रेमानंद महाराज का जीवन संघर्षों से भरा रहा। एक बार उन्हें आश्रम से निकाल दिया गया, और पॉलीसिस्टिक किडनी रोग के बावजूद उन्होंने आध्यात्मिक मार्ग नहीं छोड़ा। उनका मानना है कि भक्ति और समाज के बीच संतुलन जरूरी है, इसलिए उन्होंने विवाद को बढ़ाए बिना यात्रा रोकने का निर्णय लिया।
प्रेमानंद महाराज की कहानी आध्यात्मिक दृढ़ता और सामाजिक सद्भाव की मिसाल है। विवाद ने समाज में धार्मिक आयोजनों और नागरिक सुविधाओं के बीच संतुलन की चर्चा छेड़ी है। महाराज का निर्णय इस बात का प्रतीक है कि आध्यात्मिक नेतृत्व में लचीलापन और समझदारी भी जरूरी होती है।