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100 crore Indians have no money to spend: दिखावे में हो रहे बर्बाद!

100 crore Indians have no money to spend

100 crore Indians have no money to spend

भारत की आर्थिक संरचना और समाज में व्याप्त असमानता पर हालिया रिपोर्ट्स चौंकाने वाले तथ्य सामने ला रही हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, देश की लगभग 150 करोड़ की जनसंख्या में से 100 करोड़ भारतीयों के पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। यह आंकड़ा न केवल आर्थिक विषमता को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि देश की विकास दर कितनी असंतुलित है। इस लेख में हम भारत के आर्थिक परिदृश्य, उपभोक्ता वर्गों की बदलती प्रवृत्तियों, और इस संकट के समाधान के लिए चाणक्य नीति के सिद्धांतों की प्रासंगिकता पर चर्चा करेंगे।

1. आर्थिक विषमता: 100 करोड़ भारतीयों की स्थिति

रिपोर्ट्स के मुताबिक, भारत की केवल 13-14 करोड़ जनसंख्या ही “कंज्यूमिंग क्लास” में आती है, यानी वे लोग जिनके पास बुनियादी जरूरतों के अलावा अतिरिक्त खर्च करने की क्षमता है। यह वर्ग मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में केंद्रित है और उच्च आय वाले प्रोफेशनल्स, उद्यमियों तथा संपन्न परिवारों से बना है। इसके विपरीत, 100 करोड़ से अधिक लोग ऐसे हैं जो मूलभूत आवश्यकताओं—जैसे भोजन, आवास, शिक्षा, और स्वास्थ्य—को पूरा करने में ही संघर्षरत हैं। यह अंतर देश की आर्थिक नीतियों और संसाधनों के वितरण में गहरी खाई को दर्शाता है।

2. उपभोक्ता बाजार की सीमाएँ और स्टार्टअप्स की चुनौती

भारत का उपभोक्ता बाजार मुख्य रूप से 14 करोड़ लोगों तक सीमित है। यही वर्ग प्रीमियम उत्पादों—जैसे महंगे स्मार्टफोन, लग्जरी आइटम, और हाई-एंड सेवाओं—का मुख्य खरीदार है। स्टार्टअप्स और वेंचर कैपिटल फर्म्स भी इसी वर्ग को लक्ष्य बनाते हैं, क्योंकि निम्न आय वर्ग के लिए उत्पादों की मांग और खरीदने की क्षमता दोनों ही सीमित हैं। उदाहरण के लिए, 17-18 हज़ार रुपए के हेडफोन या लाखों रुपए के ऑनलाइन कोर्सेज केवल इसी प्रीमियम वर्ग तक पहुँच पाते हैं।

इसके अलावा, भारत की जीडीपी का 40% से अधिक हिस्सा उपभोक्ता खर्च पर निर्भर है। यदि यह खर्च घटता है, तो अर्थव्यवस्था के ठप होने का खतरा बढ़ जाता है। हालांकि, वर्तमान में उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति कमजोर होने के कारण बाजार गहराई (Depth) तो बढ़ रहा है, पर विस्तार (Expansion) नहीं हो पा रहा। इसका अर्थ है कि अमीर और गरीब वर्ग के बीच की खाई और चौड़ी हो रही है।

3. ईएमआई संस्कृति और वित्तीय संकट

आज भारत की एक बड़ी आबादी “ईएमआई संस्कृति” पर निर्भर है। लोगों की आय का बड़ा हिस्सा कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता है। रिपोर्ट्स के अनुसार, भारतीयों की अधिकांश सैलरी ईएमआई और क्रेडिट कार्ड के बिलों में फंसी हुई है। यह स्थिति न केवल व्यक्तिगत वित्तीय सुरक्षा को खतरे में डालती है, बल्कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए भी चिंताजनक है।

चाणक्य नीति के अनुसार, “धन का संचय ही समृद्धि की कुंजी है।” लेकिन आज का युवा वर्ग दिखावे और तात्कालिक सुख के लिए बचत को तवज्जो नहीं देता। सोशल मीडिया की प्रभावशाली छवियाँ लोगों को महंगे गैजेट्स, कारों, और फैशन पर अनावश्यक खर्च के लिए प्रेरित करती हैं। इसका परिणाम यह है कि व्यक्ति न तो धन बचा पाता है और न ही भविष्य के लिए वित्तीय सुरक्षा कवच बना पाता है।

4. रोजगार और आय के स्रोतों में संकट

भारत में रोजगार के अवसरों की कमी और वेतन वृद्धि की धीमी गति भी आर्थिक संकट को गहरा कर रही है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, देश के 50% टैक्स देने वाले नागरिकों की आय में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। साथ ही, AI और ऑटोमेशन के बढ़ते प्रभाव से व्हाइट-कॉलर नौकरियाँ खतरे में हैं। बड़ी कंपनियाँ अब मैन्युअल और क्लर्कल कार्यों के लिए मशीनों को प्राथमिकता दे रही हैं, जिससे बेरोजगारी की समस्या और विकराल हो सकती है।

5. अचल संपत्ति और स्टॉक मार्केट का अतिशयोक्तिपूर्ण मूल्यांकन

भारत के रियल एस्टेट और स्टॉक मार्केट में आर्टिफिशियल वैल्यूएशन की प्रवृत्ति चिंता का विषय है। शहरी क्षेत्रों में प्रॉपर्टी की कीमतें आम आदमी की पहुँच से बाहर हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली-एनसीआर में एक मध्यमवर्गीय फ्लैट की कीमत करोड़ों में पहुँच गई है, जबकि खरीदारों की संख्या सीमित है। इसी तरह, स्टॉक मार्केट में कई कंपनियों के शेयरों का मूल्यांकन वास्तविक प्रदर्शन से कहीं अधिक है, जो भविष्य में बुलबुले के फटने का खतरा पैदा करता है।

संतुलित विकास की आवश्यकता

भारत की आर्थिक समस्याओं का समाधान केवल सरकारी नीतियों या व्यक्तिगत प्रयासों से नहीं, बल्कि एक समग्र दृष्टिकोण से ही संभव है। 100 करोड़ लोगों को आर्थिक मुख्यधारा में लाने के लिए सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, और रोजगार के अवसर सुनिश्चित करने होंगे। साथ ही, समाज को धन के दिखावे की बजाय वास्तविक उपयोगिता और संचय की ओर प्रेरित करना होगा। चाणक्य की बताई गई “सुपर रिच” बनने की राह में संयम, योजनाबद्धता, और नैतिकता—यही तीन मंत्र हैं जो भारत को आर्थिक विषमता से उबार सकते हैं।

इस प्रकार, भारत की वास्तविकता को समझने और बदलने के लिए हमें न केवल आर्थिक नीतियों, बल्कि सामाजिक मानसिकता में भी बदलाव लाना होगा। ज्ञान और संसाधनों का समान वितरण ही देश को सही मायनों में “विकासशील” से “विकसित” की ओर ले जा सकता है।

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